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भारत का 'पहला' विमान: चौपाटी पर हुई थी यह ऐतिहासिक उड़ान? जानें पूरी सच्चाई!

भारत के इतिहास में कुछ ऐसी कहानियाँ हैं जो हमें अपनी प्राचीन विरासत और गुमनाम प्रतिभाओं पर सोचने पर मजबूर करती हैं। ऐसी ही एक कहानी है शिवकर बापूजी तलपदे की, एक भारतीय विद्वान और वैज्ञानिक जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने राइट ब्रदर्स की पहली सफल उड़ान (1903) से कई साल पहले, 1895 में मुंबई में एक मानव रहित विमान उड़ाने का प्रयास किया था। क्या यह सचमुच एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी, या सिर्फ़ एक लोककथा? आइए इस रहस्यमयी और आकर्षक कहानी की गहराई में उतरते हैं।

कौन थे शिवकर बापूजी तलपदे?

शिवकर बापूजी तलपदे मुंबई के एक संस्कृत स्कॉलर थे जिनकी विज्ञान और इंजीनियरिंग में गहरी रुचि थी। उनका मानना था कि प्राचीन भारतीय ग्रंथ, विशेष रूप से वेद और अन्य संस्कृत साहित्य, में उन्नत वैज्ञानिक ज्ञान छिपा हुआ है। वह विशेष रूप से "विमानिका शास्त्र" (Vaimanika Shastra) जैसे ग्रंथों से प्रेरित थे, जिसे महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखा गया माना जाता है, जिसमें उड़ने वाली मशीनों (विमानों) के निर्माण और संचालन के सिद्धांतों का विस्तृत वर्णन है। तलपदे का लक्ष्य इस प्राचीन ज्ञान को आधुनिक इंजीनियरिंग के साथ जोड़कर एक व्यावहारिक विमान बनाना था।

"मरुतसखा" और 1895 की कथित उड़ान

कहा जाता है कि तलपदे ने अपने विमान का नाम "मरुतसखा" (Marutsakha) रखा था, जिसका अर्थ संस्कृत में "हवा का मित्र" होता है। सबसे महत्वपूर्ण दावा यह है कि 1895 में, उन्होंने मुंबई के चौपाटी समुद्र तट पर इस विमान का एक सार्वजनिक प्रदर्शन किया था।

कथित घटना:

  • दिनांक: 1895 (राइट ब्रदर्स की पहली उड़ान से 8 साल पहले)।

  • स्थान: मुंबई का चौपाटी समुद्र तट।

  • दर्शक: बताया जाता है कि इस प्रदर्शन में महाराज गायकवाड़ जैसे गणमान्य व्यक्ति और कुछ यूरोपीय लोग भी मौजूद थे।

  • उड़ान का दावा: कहानियों के अनुसार, "मरुतसखा" कुछ मिनटों के लिए लगभग 1500 फीट की ऊंचाई तक उड़ा था, और फिर कुछ खराबी के कारण नीचे आ गया था।

यह माना जाता है कि तलपदे ने इस विमान को बनाने के लिए पारा (mercury) और सौर ऊर्जा के सिद्धांतों का उपयोग किया था, जैसा कि कुछ प्राचीन ग्रंथों में वर्णित है।

विवाद और गुमनामी: क्यों उनकी कहानी सवालों में घिरी है?

तलपदे की कहानी बेहद रोमांचक है, लेकिन इसे मुख्यधारा के वैज्ञानिक समुदाय द्वारा व्यापक रूप से स्वीकार नहीं किया जाता है। इसकी कुछ प्रमुख वजहें हैं:

  • वैज्ञानिक प्रमाणों की कमी: तलपदे के काम के कोई पुख्ता वैज्ञानिक रिकॉर्ड, विस्तृत ब्लूप्रिंट या सहकर्मी-समीक्षित दस्तावेज (peer-reviewed documents) उपलब्ध नहीं हैं। जो जानकारी मिलती है वह ज्यादातर मौखिक परंपराओं या बाद के अस्पष्ट लेखन पर आधारित है।

  • प्रौद्योगिकी का सत्यापन: प्राचीन ग्रंथों में वर्णित विमानों की अवधारणाएं अक्सर आधुनिक भौतिकी और वायुगतिकी के सिद्धांतों से मेल नहीं खातीं। पारे का उपयोग करके उड़ने वाले यान का विचार आधुनिक विज्ञान के लिए अविश्वसनीय लगता है।

  • पश्चिमी प्रभुत्व: 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में, वैज्ञानिक नवाचारों को दस्तावेज़ करने और पेटेंट कराने का चलन पश्चिमी देशों में अधिक मज़बूत था। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के तहत, भारतीय वैज्ञानिकों को वैश्विक पहचान मिलना मुश्किल था।

  • "विमानिका शास्त्र" पर विवाद: जिस "विमानिका शास्त्र" से तलपदे ने प्रेरणा ली, उस पर भी कई विद्वानों द्वारा बहस की गई है। कुछ का तर्क है कि यह एक आधुनिक ग्रंथ है जिसे प्राचीन के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जबकि अन्य इसे वास्तविक प्राचीन कार्य मानते हैं, लेकिन इसके वैज्ञानिक दावों को अविश्वसनीय पाते हैं।

इन कारणों से, तलपदे की कहानी को कई लोग इतिहास का एक दिलचस्प किस्सा या एक महत्वाकांक्षी प्रयास मानते हैं, न कि एक सिद्ध वैज्ञानिक उपलब्धि।

आधुनिक भारत में मान्यता और बहस

हाल के वर्षों में, भारत में तलपदे के योगदान को फिर से चर्चा में लाने और उन्हें मान्यता दिलाने के प्रयास हुए हैं।

  • जन जागरूकता: कई लेखों, पुस्तकों और फ़िल्मों (जैसे 2015 की मराठी फ़िल्म "हवाईज़ादा") ने तलपदे की कहानी को जनता के सामने लाया है।

  • वैज्ञानिक मंचों पर चर्चा: कुछ भारतीय विज्ञान कांग्रेस सत्रों में भी तलपदे के काम पर चर्चा हुई है, हालांकि यह अक्सर विवाद का विषय रहा है।

  • राष्ट्रीय गौरव: बहुत से लोग तलपदे की कहानी को भारतीय वैज्ञानिक नवाचार और अतीत के महान ज्ञान के प्रमाण के रूप में देखते हैं, जो राष्ट्रीय गौरव की भावना को बढ़ाता है।

भले ही शिवकर बापूजी तलपदे का काम अभी भी अकादमिक बहस का विषय है, लेकिन वह भारतीय वैज्ञानिक भावना और प्राचीन भारतीय ग्रंथों में निहित ज्ञान की खोज के एक प्रेरणादायक प्रतीक बने हुए हैं। उनकी कहानी हमें याद दिलाती है कि नवाचार और जिज्ञासा की कोई सीमा नहीं होती, और कभी-कभी इतिहास के पन्नों में ऐसे गुमनाम नायक भी होते हैं जिनके योगदान को फिर से खोजने की आवश्यकता होती है।

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